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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2683
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

प्रश्न- अनुसूचित जातियों एवं पिछड़े वर्गों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर -

भारतीय समाज में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों को कमजोर वर्ग माना जाता है। कई बार नारियों को भी इस वर्ग में सम्मिलित किया जाता है। अनुसूचित जातियाँ, जनजातियाँ, पिछड़े वर्ग एवं नारियाँ सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी हुई हैं तथा इनके सम्मुख अनेक समस्याएँ हैं। सरकार अनुसूचित जातियों, जनजातियों, पिछड़े वर्गों व नारियों की समस्याओं के समाधान के लिए स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् निरन्तर प्रयत्नशील रही है। इनके उत्थान के लिए अनेक संवैधानिक व्यवस्थाएँ रखी गई हैं तथा अनेक प्रकार की समाज कल्याण योजनाएँ चलाई जा रही हैं।

अनुसूचित जातियों की समस्याएँ

अनुसूचित जातियाँ वे निम्न जातियाँ हैं, जिन्हें सरकार ने विशेष अनुसूची में सम्मिलित किया है और जिन्हें विशेष सुविधाओं द्वारा सरकार अन्य जातियों के बराबर लाना चाहती है। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार इनकी तथा अनुसूचित जनजातियों की संख्या कुल जनसंख्या का चौथाई भाग है। अगर इनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है तो भारत प्रगति नहीं कर सकता। इसीलिये इनकी समस्याओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। अनुसूचित जातियों की निम्नांकित प्रमुख समस्याएँ हैं-

(1) राजनीतिक समस्याएँ – अनुसूचित जातियों की समस्याओं में राजनीतिक समस्या. भी प्रमुख स्थान रखती है। इन लोगों को केवल नौकरियों में नियुक्ति एवं वेतन सम्बन्धी अधिकार ही नहीं थे, अपितु राजनीतिक दृष्टि से राय देने का भी कोई अधिकार नहीं था। वोट देने तथा शिक्षा प्राप्त करने के अधिकारों से भी उन्हें वंचित रखा जाता था। यद्यपि स्वतन्त्रता के पश्चात् अनुसूचित जातियों की राजनीतिक निर्योग्यताएँ समाप्त हो गई हैं तथा उन्हें अन्य नागरिकों के समान अधिकार ही प्राप्त नहीं हैं, अपितु राज्य विधान सभाओं एवं लोक सभा में आरक्षण सुविधाएँ भी प्रदान की गई हैं, फिर भी इन्हें चुनाव में डाँट-डपटने (Intimidation) तथा दबाव (Coercion) के अनेक मामले सामने आते रहते हैं। हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, पश्चिमी बंगाल, नागालैंड तथा पाण्डिचेरी में अनेक ऐसी शिकायतें मिलती रहती हैं। बिहार में तो मतदान केन्द्रों के पास खुली उग्रता के अनेक मामले भी हुए हैं।

यद्यपि प्रजातन्त्रीकरण (Democratization) तथा राजनीतिकरण (Politicization) के परिणामस्वरूप अनुसूचित जातियों में नई चेतना के कारण अपने अधिकारों के प्रति जागरुकता आई है तथा पंचायत से लेकर लोक सभा तक सुरक्षित स्थान व नौकरी की सुविधाओं एवं सुरक्षित स्थानों के कारण इनके आत्म विश्वास में वृद्धि हुई है। फिर भी ऐसा देखा गया है कि अनुसूचित जातियों के सभी व्यक्ति, विशेष रूप से ग्रामीण अशिक्षित व्यक्ति, अपने अधिकारों के प्रति सचेत नहीं हैं। इनमें भी एक संभ्रांतन वर्ग (Elite class) का उदय हो गया है तथा सभी सुविधाएँ इस वर्ग को मिल रही हैं सामान्य लोगों को नहीं। इसका एक प्रमुख कारण अशिक्षा तथा अज्ञानता भी है।

आइसक ( Issacs) के अनुसार अनुसूचित जातियों में शिक्षा, व्यावसायिक गतिशीलता, आरक्षण की नीति इत्यादि में काफी परिवर्तन हुए हैं तथा इनसे उनकी सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति पहले से कहीं अच्छी हुई है।

अनुसूचित जातियों में शिक्षा की वृद्धि द्वारा जनचेतना जगाने की आवश्यकता है, ताकि वे अपने अधिकारों के प्रति सजग होकर सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं का पूरा लाभ उठाया करें। साथ ही डाँट-डपट व दबाव के मामलों को चुनाव के समय सख्ती से दबाया जाना चाहिए, ताकि अनुसूचित जातियों के लोग बिना किसी डर के अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकें। राज्य सरकारों तथा केन्द्रीय सरकारों को चुनाव आयोग की सहायता से इस दिशा में कड़े कदम उठाने चाहियें।

(2) आर्थिक समस्याएँ - निर्योग्यताओं के कारण इनका सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक स्तर भी काफी निम्न रहा है। इन्हें अपनी इच्छानुसार व्यवसाय चुनने का अधिकार नहीं था, इनसे बेगार ली जाती है, तथा वेतन भी न्यूनतम दिया जाता है। श्रम विभाजन में भी इन्हें निम्न स्थान प्राप्त था, जिनके कारण इनको योग्यता होने पर अच्छे कुशल कर्मचारी बनने का अवसर प्राप्त नहीं हो पाता था। इन लोगों को उच्च व्यवसाय करने की अनुमति नहीं थी तथा आज भी ग्रामीण भारत में इस प्रकार के प्रतिबन्ध देखे जा सकते हैं।

अनुसूचित जातियों के लोगों के आर्थिक स्तर को ऊँचा करने के लिए सरकार ने अनेक कदम उठाये हैं तथा संवैधानिक रूप से अनेक सुविधाएँ उपलब्ध की हैं। नौकरियों में आरक्षण सुविधाएँ, बैंकों से आसान शर्तों पर ऋण, आवासीय सुविधाएँ, कृषि मजदूरों के लिये न्यूनतम वेतन का निर्धारण, ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण की वसूली न करना तथा बंधुआ मजदूरी की समाप्ति इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास हैं। परन्तु अभी भी इस दिशा में काफी कुछ किया जाना बाकी है तथा इसके लिए अनुसूचित जातियों के लोगों में जनचेतना को बढ़ाया जाना अनिवार्य है ताकि वे सरकार द्वारा उपलब्ध सुविधाओं का लाभ उठा सकें तथा अपने आर्थिक स्तर में सुधार कर सकें।

(3) अस्पृश्यता की समस्या – अस्पृश्यता का इतिहास भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के इतिहास से जुड़ा हुआ है क्योंकि यह जाति व्यवस्था के साथ ही हमारे समाज में एक गम्भीर समस्या रही है। वैदिक काल में अस्पृश्यता शब्द का प्रयोग तो नहीं किया जाता था, परन्तु चण्डाल, डोम, अन्त्यज, निषाद आदि शब्दों का प्रयोग ऐसे व्यक्तियों के लिये किया जाता रहा है, जिनका स्तर लगभग अस्पृश्यों जैसा ही था। उस समय पवित्रता - अपवित्रता सम्बन्धी विचारों का प्रमुख स्थान था तथा इन लोगों को

दूध से बनी वस्तुओं एवं यज्ञ में काम आने वाली चीजों को छूने की आज्ञा नहीं थी, परन्तु वैदिक तथा उत्तर-वैदिक काल में इन लोगों के प्रति भेदभाव एवं घृणा की भावना अधिक कटु नहीं थी। घुरिये (Ghurye ) के अनुसार, यद्यपि वैदिक काल में यज्ञ, धर्म आदि से सम्बन्धित शुद्धता या पवित्रता की धारणा अत्यन्त प्रखर थी, किन्तु अस्पृश्यता का जो रूप आज है वैसा उस युग में नहीं था। उस काल में चण्डाल आदि लोगों के रहने की व्यवस्था गाँव के बाहर होती थी। इनके अनुसार उत्तर-वैदिक काल में केवल चण्डालों या अन्त्यजों पर ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण शूद्र वर्ण पर अस्पृश्यता सम्बन्धी प्रतिबन्ध लगा दिये गये। अगर कोई उच्च वर्ण की नारी निम्न या अस्पृश्य जाति के किसी व्यक्ति से विवाह कर लेती थी, तो उसे घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। स्मृतिकाल में अस्पृश्यता की भावना में तेजी से वृद्धि होने लगी। मनु के अनुसार चण्डालों को गाँव से बाहर रहना चाहिए, दिन में गाँव में नहीं आना चाहिए और अपने बर्तनों के प्रयोग को केवल अपने तक ही सीमित रखना चाहिए। इस काल में इन्हें अधर्म कार्य (यथा- गन्दगी साफ करना, लावारिस शवों को उठाना आदि) ही करने दिया जाता था। भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना के पश्चात् अस्पृश्यों की स्थिति में और अधिक गिरावट आ गई और इन्हें अनेक प्रकार की निर्योग्यताओं के कारण एकान्त स्थान पर रहने के लिए बाध्य किया गया। अंग्रेजी शासनकाल में समाज सुधारकों एवं सरकारी प्रयासों के कारण अस्पृश्यों की स्थिति में काफी सुधार हुआ तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् संवैधानिक प्रावधानों द्वारा अस्पृश्यता को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया।

सन् 1931 की जनगणना में दलित वर्ग के स्थान पर बाहरी जाति शब्द का भी प्रयोग किया गया। सन् 1931 में उस समय के ब्रिटिश प्रधानमन्त्री रेम्जे मैक्डोनाल्ड ने इनको पृथक् निर्वाचन का अधिकार दे दिया परन्तु गाँधीजी ने इसका तीव्र विरोध किया। गाँधीजी का विचार था कि दलित वर्ग हिन्दुओं से पृथक नहीं है अपितु हिन्दुओं का ही एक अंग है, इसलिये उन्हें पृथक् निर्वाचन का अधिकार देना उचित नहीं है। गाँधीजी ने 20 सितम्बर, 1932 को इसके - विरोध में आमरण अनशन शुरू कर दिया, परन्तु डॉ० सप्रू एवं डॉ० जयकर के प्रयासों से गाँधीजी एवं डॉ० अम्बेडकर में 'पूना पैक्ट' के नाम से जानी जाने वाली एक संधि हुई जिसके अनुसार दलित वर्ग को हिन्दुओं का ही अंग स्वीकार किया गया और कुछ इनको विशेष अधिकार प्रदान किए गए। उसी समय गाँधी जी ने इन्हें दलित वर्ग के स्थान पर 'हरिजन' कहना प्रारम्भ कर दिया। सन् 1935 के विधान में इन जातियों को विशेष सुविधाएँ देने के लिए अनुसूची तैयार की गई तथा जिन जातियों को इन अनुसूची के अन्तर्गत रखा गया उन्हें वैधानिक दृष्टि से अनुसूचित जातियाँ भी कहा जाने लगा। आज भी समस्त सरकारी प्रयोग में उन्हें अनुसूचित जातियों के नाम से सम्बोधित किया जाता है।

(4) शिक्षा के विकास सम्बन्धी समस्याएँ - अनुसूचित जातियों को परम्परागत रूप से शिक्षा सुविधाओं से वंचित रखा जाता था तथा व्यावसायिक दृष्टि से इन्हें निम्न व्यवसाय ही करने पड़ते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि आज भी अनुसूचित जातियों में शिक्षा की दर अन्य जातियों की तुलना में कहीं कम है। अंग्रेजी शासनकाल तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने इन जातियों के शैक्षिक स्तर को ऊँचा करने के लिए अनेक कदम उठाए हैं तथा विविध प्रकार की सुविधाएँ भी प्रदान की हैं। वजीफे, मुफ्त वर्दी, पुस्तकें व कापियाँ, छात्रावास सुविधाएँ एवं शिक्षा संस्थाओं व प्रशिक्षण संस्थाओं में इनके लिए आरक्षित स्थानों के प्रावधान के परिणामस्वरूप यद्यपि इनमें शिक्षा की वृद्धि हुई है, फिर भी इस दिशा में अभी काफी कार्य करना शेष है। वास्तव में इन लोगों को मनोवैज्ञानिक रूप से शिक्षा प्राप्ति के लिये तैयार किया जाना आवश्यक है। साथ ही उन्हें शिक्षा इस प्रकार की दी जानी चाहिए कि वे अपने रोजगार स्वयं स्थापित कर सकें अथवा प्रशिक्षण प्राप्त कर अपना कोई कार्य कर सकें। अनुसूचित जातियों मंे लड़कियों की शिक्षा की ओर ध्यान दिए जाने की विशेष आवश्यकता है।

(5) अत्याचार एवं उत्पीड़न की समस्याएँ - अनुसूचित जातियों की दूसरी समस्या अत्याचार और उत्पीड़न की है। अस्पृश्यता के कारण इन्हें जिन सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता था उसके कारण ये जातियाँ अनेक प्रकार के अत्याचारों और उत्पीड़न का शिकार हो गई हैं। लगभग सभी राज्यों में अनुसूचित जातियों पर उत्पीड़न और अत्याचार के समाचार निरन्तर मिलते रहते हैं। इनमें इनकी भूमि को अवैध रूप से छीन लेना, उनसे बेगार लेना तथा बंधुआ मजदूरों के रूप में काम लेना, महिलाओं से दुर्व्यवहार एवं शोषण, हत्याएँ, लूटमार तथा जमीन के खरीदने व बेचने में अनियमितताएँ इत्यादि प्रमुख हैं। इन्हें जिन्दा जला देने की घटनाएँ भी सुनने में आती हैं। बिहार में बेलची काण्ड इसका एक उदाहरण है। इन पर पुलिस द्वारा अत्याचार की अनेक घटनाएँ भी सामने आई हैं।

यद्यपि सरकार ने भूमिहीन अनुसूचित जातियों के लोगों को भूमि का वितरण, न्यूनतम वेतन में वृद्धि, गृहों का आवंटन, बंधुआ मजदूर प्रथा की समाप्ति जैसे उपायों से इनका उत्पीड़न और इन पर होने वाले अत्याचारों को काफी सीमा तक नियन्त्रित करने का प्रयास किया है, फिर भी कुछ प्रभावशाली व्यक्ति अपने व्यक्तिगत हितों के कारण इन जातियों के. सामाजिक-आर्थिक सुधार में अनेक बाधाएँ उत्पन्न करते रहे हैं। कई राज्यों में तो सरकार, द्वारा आबंटित भूमि पर इन लोगों को कब्जा नहीं मिल पाया है। मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र व देहली में ऐसी घटनाओं की सूचना अधिकारियों को दी गई हैं।

उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश तथा देहली में अनुसूचित जातियों के लोगों पर विविध प्रकार के अत्याचार एवं उत्पीड़न के समाचार मिलते रहे हैं। इनकी शिकायतों को, जो कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कमिश्नर को प्राप्त होती हैं, सम्बन्धित सरकारों को प्रेषित कर दिया जाता है।

अनुसूचित जातियों पर होने वाले अत्याचार एवं उत्पीड़न को रोकने का दायित्व यद्यपि राज्य सरकारों का है, फिर भी केन्द्रीय सरकार कमजोर वर्गों पर अत्याचार रोकने के अनेक उपाय करती है तथा स्थिति के अनुसार कदम उठाती है। बड़े खेद की बात है कि इन पर होने वाले अत्याचारों की ठीक प्रकार से जाँच-पड़ताल भी नहीं हो पाती। उदाहरणार्थ, अनुसूचित जातियों व जनजातियाँ के कमिश्नर की 24वीं रिपोर्ट (1975-76 एवं 1976-77, भाग - 1 ) के अनुसार नहीं लगाई गई।

अन्य पिछड़े वर्ग एवं उनकी समस्याएँ

कमजोर वर्गों में अनुसूचित जातियों के अतिरिक्त अन्य पिछड़े वर्ग भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन वर्गों को भी शिक्षा व रोजगार में कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हैं,

परन्तु इन्हें अनुसूचित जातियों व जनजातियों की तरह सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव द्वारा राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अधिकार प्राप्त नहीं है। अन्य पिछड़े वर्गों का निर्धारण दो प्रमुख आधारों पर किया गया है - प्रथम, जाति और द्वितीय, व्यवसाय जाति की दृष्टि से ये वर्ग अनुसूचित जातियों से उच्च स्थान रखते हैं तथा व्यवसाय की दृष्टि से भी इनका व्यवसाय अस्पृश्यों जैसा नहीं रहा है। इन वर्गों में अधिकांशतः मध्य स्तर की कृषकं जातियों को सम्मिलित किया गया है।

आन्द्रे बेतेई (Andre Beteille) ने कृषिक जातियों को अन्य पिछड़े वर्गों का सारभाग (Core) बताया है। ये वर्ग निश्चित रूप से उच्च जातियों से शिक्षा, व्यवसाय व सरकारी नौकरियों में पिछड़े हुए हैं। वे जातीय संस्तरण में भी निम्न स्थान रखते हैं। वस्तुतः 'पिछड़े वर्ग' नाम की अवधारणा में यह तथ्य निहित है कि कुछ 'अग्रवर्ती वर्ग' (Forward classes) भी हैं। बिहार में इस प्रकार का स्पष्ट विभाजन देखा जा सकता है और के० एल० शर्मा (K, L. Sharma) के अनुसार अग्रवर्ती वर्ग पिछड़े वर्गों को तुच्छ समझते हैं।

पहले अस्पृश्यों व अन्य पिछड़े वर्गों के लिए संयुक्त रूप से 'दलित वर्ग' - (Depressed classes) शब्द का प्रयोग किया जाता था तथा इन्हें परिभाषित करने का कोई स्पष्ट आधार नहीं था। सन् 1948 में यह महसूस किया गया कि एक 'पिछड़ा वर्ग कमीशन' बनाया जाए जो पूरे देश में उन हिन्दू व मुस्लिम जातियों का पता लगाये जो शिक्षा, सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी हुई हैं। यह कमीशन वस्तुतः सन् 1953 में बनाया गया। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948-49) ने भी पिछड़े वर्गों हेतु सुरक्षित स्थान रखने पर बल दिया। सन् 1947 में बिहार सरकार ने पिछड़े वर्गों हेतु हाईस्कूल के पश्चात् शिक्षा सुविधाओं की घोषणा की तथा 1955 में इन वर्गों की सूची भी घोषित की। इन वर्गों की सूची में प्रदेश की 60 प्रतिशत उपजातियों को स्थान दिया गया। सन् 1948 में उत्तर प्रदेश सरकार ने 56 जातियों की सूची घोषित की जो अन्य पिछड़े वर्गों के अन्तर्गत आती थीं तथा उन्हें शिक्षा में कुछ सुविधाएँ प्रदान की गईं। इस प्रकार, संविधान निर्माण से पहले भी 'अन्य पिछड़े वर्गों की धारणा भारतीय समाज में विद्यमान रही है।

अन्य पिछड़े वर्गों में पिछड़ापन समूह या जाति का लक्षण माना जाता है न कि व्यक्ति विशेष का। आज आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में इन वर्गों ने महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त कर ली है। संविधान की धारा 340 राष्ट्रपति को तथा धाराएँ 15 (4) व (6) ने राज्य सरकारों को इन वर्गों की समस्याओं का पता लगाने हेतु कमीशन की नियुक्ति करने व विशेष सुविधायें प्रदान करने का प्रावधान करती हैं। भारत के राष्ट्रपति द्वारा 1953 में काका कलेलकर की अध्यक्षता में नियुक्त कमीशन ने पिछड़ेपन के निर्धारण हेतु चार आधार रखे -

(1) जातीय संस्तरण में निम्न स्थिति;
(2) शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ापन;
(3) सरकारी नौकरियों में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व; तथा
(4) व्यापार, वाणिज्य व उद्योग के क्षेत्रों में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व।

सन् 1977 में जनता पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में जातीय असमानताएँ समाप्त करने तथा अन्य पिछड़े वर्गों हेतु सरकारी नौकरियों व शिक्षा संस्थाओं में 25 और 33 प्रतिशत के बीच स्थान सुरक्षित रखने का वायदा किया। सत्ता में आने के पश्चात् जनता पार्टी द्वारा मण्डल कमीशन नियुक्त किया गया। इस बहुचर्चित कमीशन ने देश की 52 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाले अन्य पिछड़े वर्गों हेतु सरकारी सेवाओं व शिक्षा संस्थाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण का सुझाव दिया जिसे अन्ततः विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमन्त्री काल में काफी विरोध के बावजूद स्वीकार कर लिया गया।

संविधान के अनुच्छेद 15 (4) के अन्तर्गत सरकार को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार है। अनुच्छेद 16 (4) में सरकार को उन पिछड़े वर्गों के लिए सेवाओं और पदों में आरक्षण की व्यवस्था का अधिकार दिया गया है, जिन्हें उसकी राय में सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। संविधान के अनुच्छेद 340 में व्यवस्था है कि राष्ट्रपति सामाजिक और शिक्षा की दृष्टि से पिछड़े वर्गों की परिस्थितियों और काम के मामले में उनकी कठिनाइयों का पता लगाने के लिए आयोग नियुक्त कर सकते हैं। इस आयोग से ये कठिनाइयाँ दूर करने के बारे में केन्द्र या अन्य सरकारों से उपाय करने को कहा जा सकता है।

इन सुविधाओं के कारण अन्य पिछड़े वर्गों ने अपनी आर्थिक व राजनीतिक स्थिति काफी ऊँची कर ली है तथा अनेक प्रदेशों में इनका राजनीतिक क्षेत्र में सर्वोच्च पदों पर प्रतिनिधित्व है। इनकी प्रमुख समस्याएँ शिक्षा व सरकारी नौकरियों में स्थान प्राप्त करने की है, जो इनकी प्रगति के कारण काफी सीमा तक कम होती जा रही है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण क्या है? सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  2. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की क्या आवश्यकता है? सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधारों को स्पष्ट कीजिये।
  3. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण को निर्धारित करने वाले कारक कौन-कौन से हैं?
  4. प्रश्न- सामाजिक विभेदीकरण किसे कहते हैं? सामाजिक स्तरीकरण और सामाजिक विभेदीकरण में अन्तर बताइये।
  5. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण से सम्बन्धित आधारभूत अवधारणाओं का विवेचन कीजिए।
  6. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के सम्बन्ध में पदानुक्रम / सोपान की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- असमानता से क्या आशय है? मनुष्यों में असमानता क्यों पाई जाती है? इसके क्या कारण हैं?
  8. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप का संक्षिप्त विवेचन कीजिये।
  9. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के अकार्य/दोषों का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  10. प्रश्न- वैश्विक स्तरीकरण से क्या आशय है?
  11. प्रश्न- सामाजिक विभेदीकरण की विशेषताओं को लिखिये।
  12. प्रश्न- जाति सोपान से क्या आशय है?
  13. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता क्या है? उपयुक्त उदाहरण देते हुए सामाजिक गतिशीलता के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  14. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के प्रमुख घटकों का वर्णन कीजिए।
  15. प्रश्न- सामाजिक वातावरण में परिवर्तन किन कारणों से आता है?
  16. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की खुली एवं बन्द व्यवस्था में गतिशीलता का वर्णन कीजिए तथा दोनों में अन्तर भी स्पष्ट कीजिए।
  17. प्रश्न- भारतीय समाज में सामाजिक गतिशीलता का विवेचन कीजिए तथा भारतीय समाज में गतिशीलता के निर्धारक भी बताइए।
  18. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता का अर्थ लिखिये।
  19. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के पक्षों का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  20. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  21. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के मार्क्सवादी दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  22. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण पर मेक्स वेबर के दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  23. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की विभिन्न अवधारणाओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
  24. प्रश्न- डेविस व मूर के सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्यवादी सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।
  25. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्य पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  26. प्रश्न- डेविस-मूर के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  27. प्रश्न- स्तरीकरण की प्राकार्यात्मक आवश्यकता का विवेचन कीजिये।
  28. प्रश्न- डेविस-मूर के रचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी लिखिये।
  29. प्रश्न- जाति की परिभाषा दीजिये तथा उसकी प्रमुख विशेषतायें बताइये।
  30. प्रश्न- भारत में जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये।
  31. प्रश्न- जाति प्रथा के गुणों व दोषों का विवेचन कीजिये।
  32. प्रश्न- जाति-व्यवस्था के स्थायित्व के लिये उत्तरदायी कारकों का विवेचन कीजिये।
  33. प्रश्न- जाति व्यवस्था को दुर्बल करने वाली परिस्थितियाँ कौन-सी हैं?
  34. प्रश्न- भारतवर्ष में जाति प्रथा में वर्तमान परिवर्तनों का विवेचन कीजिये।
  35. प्रश्न- जाति व्यवस्था में गतिशीलता सम्बन्धी विचारों का विवेचन कीजिये।
  36. प्रश्न- वर्ग किसे कहते हैं? वर्ग की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  37. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण व्यवस्था के रूप में वर्ग की आवधारणा का वर्णन कीजिये।
  38. प्रश्न- अंग्रेजी उपनिवेशवाद और स्थानीय निवेश के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में उत्पन्न होने वाले वर्गों का परिचय दीजिये।
  39. प्रश्न- जाति, वर्ग स्तरीकरण की व्याख्या कीजिये।
  40. प्रश्न- 'शहरीं वर्ग और सामाजिक गतिशीलता पर टिप्पणी लिखिये।
  41. प्रश्न- खेतिहर वर्ग की सामाजिक गतिशीलता पर प्रकाश डालिये।
  42. प्रश्न- धर्म क्या है? धर्म की विशेषतायें बताइये।
  43. प्रश्न- धर्म (धार्मिक संस्थाओं) के कार्यों एवं महत्व की विवेचना कीजिये।
  44. प्रश्न- धर्म की आधुनिक प्रवृत्तियों की विवेचना कीजिये।
  45. प्रश्न- समाज एवं धर्म में होने वाले परिवर्तनों का उल्लेख कीजिये।
  46. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण में धर्म की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।
  47. प्रश्न- जाति और जनजाति में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
  48. प्रश्न- जाति और वर्ग में अन्तर बताइये।
  49. प्रश्न- स्तरीकरण की व्यवस्था के रूप में जाति व्यवस्था को रेखांकित कीजिये।
  50. प्रश्न- आंद्रे बेत्तेई ने भारतीय समाज के जाति मॉडल की किन विशेषताओं का वर्णन किया है?
  51. प्रश्न- बंद संस्तरण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
  52. प्रश्न- खुली संस्तरण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
  53. प्रश्न- धर्म की आधुनिक किन्हीं तीन प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिये।
  54. प्रश्न- "धर्म सामाजिक संगठन का आधार है।" इस कथन का संक्षेप में उत्तर दीजिये।
  55. प्रश्न- क्या धर्म सामाजिक एकता में सहायक है? अपना तर्क दीजिये।
  56. प्रश्न- 'धर्म सामाजिक नियन्त्रण का प्रभावशाली साधन है। इस सन्दर्भ में अपना उत्तर दीजिये।
  57. प्रश्न- वर्तमान में धार्मिक जीवन (धर्म) में होने वाले परिवर्तन लिखिये।
  58. प्रश्न- जेण्डर शब्द की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये।
  59. प्रश्न- जेण्डर संवेदनशीलता से क्या आशय हैं?
  60. प्रश्न- जेण्डर संवेदशीलता का समाज में क्या भूमिका है?
  61. प्रश्न- जेण्डर समाजीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  62. प्रश्न- समाजीकरण और जेण्डर स्तरीकरण पर टिप्पणी लिखिए।
  63. प्रश्न- समाज में लैंगिक भेदभाव के कारण बताइये।
  64. प्रश्न- लैंगिक असमता का अर्थ एवं प्रकारों का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  65. प्रश्न- परिवार में लैंगिक भेदभाव पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- परिवार में जेण्डर के समाजीकरण का विस्तृत वर्णन कीजिये।
  67. प्रश्न- लैंगिक समानता के विकास में परिवार की भूमिका का वर्णन कीजिये।
  68. प्रश्न- पितृसत्ता और महिलाओं के दमन की स्थिति का विवेचन कीजिये।
  69. प्रश्न- लैंगिक श्रम विभाजन के हाशियाकरण के विभिन्न पहलुओं की चर्चा कीजिए।
  70. प्रश्न- महिला सशक्तीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- पितृसत्तात्मक के आनुभविकता और व्यावहारिक पक्ष का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  72. प्रश्न- जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से क्या आशय है?
  73. प्रश्न- पुरुष प्रधानता की हानिकारकं स्थिति का वर्णन कीजिये।
  74. प्रश्न- आधुनिक भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है?
  75. प्रश्न- महिलाओं की कार्यात्मक महत्ता का वर्णन कीजिए।
  76. प्रश्न- सामाजिक क्षेत्र में लैंगिक विषमता का वर्णन कीजिये।
  77. प्रश्न- आर्थिक क्षेत्र में लैंगिक विषमता की स्थिति स्पष्ट कीजिये।
  78. प्रश्न- अनुसूचित जाति से क्या आशय है? उनमें सामाजिक गतिशीलता तथा सामाजिक न्याय का वर्णन कीजिये।
  79. प्रश्न- जनजाति का अर्थ एवं परिभाषाएँ लिखिए तथा जनजाति की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  80. प्रश्न- भारतीय जनजातियों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  81. प्रश्न- अनुसूचित जातियों एवं पिछड़े वर्गों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  82. प्रश्न- जनजातियों में महिलाओं की प्रस्थिति में परिवर्तन के लिये उत्तरदायी कारणों का वर्णन कीजिये।
  83. प्रश्न- सीमान्तकारी महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु किये जाने वाले प्रयासो का वर्णन कीजिये।
  84. प्रश्न- अल्पसंख्यक कौन हैं? अल्पसंख्यकों की समस्याओं का वर्णन कीजिए एवं उनका समाधान बताइये।
  85. प्रश्न- भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति एवं समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों से क्या आशय है?
  87. प्रश्न- सीमान्तिकरण अथवा हाशियाकरण से क्या आशय है?
  88. प्रश्न- सीमान्तकारी समूह की विशेषताएँ लिखिये।
  89. प्रश्न- आदिवासियों के हाशियाकरण पर टिप्पणी लिखिए।
  90. प्रश्न- जनजाति से क्या तात्पर्य है?
  91. प्रश्न- भारत के सन्दर्भ में अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या कीजिये।
  92. प्रश्न- अस्पृश्य जातियों की प्रमुख निर्योग्यताएँ बताइये।
  93. प्रश्न- अस्पृश्यता निवारण व अनुसूचित जातियों के भेद को मिटाने के लिये क्या प्रयास किये गये हैं?
  94. प्रश्न- मुस्लिम अल्पसंख्यक की समस्यायें लिखिये।

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